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अ॒स्माक॑मि॒न्द्रेहि॑ नो॒ रथ॑मवा॒ पुरं॑ध्या। व॒यं श॑विष्ठ॒ वार्यं॑ दि॒वि श्रवो॑ दधीमहि दि॒वि स्तोमं॑ मनामहे ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmākam indrehi no ratham avā puraṁdhyā | vayaṁ śaviṣṭha vāryaṁ divi śravo dadhīmahi divi stomam manāmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्माक॑म्। इ॒न्द्र॒। आ। इ॒हि॒। नः॒। रथ॑म्। अ॒व॒। पुर॑म्ऽध्या। व॒यम्। श॒वि॒ष्ठ॒। वार्य॑म्। दि॒वि। श्रवः॑। द॒धी॒म॒हि॒। दि॒वि। स्तोम॑म्। म॒ना॒म॒हे॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:35» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजद्वारा विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शविष्ठ) अत्यन्त बल से युक्त (इन्द्र) राजन् ! आप (पुरन्ध्या) बहुत विद्या को धारण करनेवाली बुद्धि से (अस्माकम्) हम लोगों के (रथम्) बहुत प्रकार के वाहन को (आ, इहि) प्राप्त हूजिये और (नः) हम लोगों का निरन्तर (अवा) पालन कीजिये जिससे (वयम्) हम लोग (दिवि) मनोहर राज्य में (वार्य्यम्) स्वीकार करने योग्य (श्रवः) श्रवण वा अन्न को (दधीमहि) धारण करें और (दिवि) प्रशंसा करने योग्य राज्य में (स्तोमम्) सम्पूर्ण शास्त्र के पढ़ने और पढ़ाने को (मनामहे) जानें ॥८॥
भावार्थभाषाः - वही प्रजा का प्रिय होता है, जो राजा न्याय से प्रजाओं का उत्तम प्रकार पालन करके विद्या और उत्तम शिक्षा की प्रजाओं में प्रवृत्ति करे ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र राजा प्रजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतीसवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजद्वारा विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे शविष्ठेन्द्र ! त्वं पुरन्ध्याऽस्माकं रथमेहि नोऽस्माँश्च सततमवा येन वयं दिवि वार्य्यं श्रवो दधीमहि दिवि स्तोमं मनामहे ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्माकम्) (इन्द्र) (आ, इहि) प्राप्नुहि (नः) अस्मान् (रथम्) बहुविधं यानम् (अवा) पाहि (पुरन्ध्या) बहुविद्याधरित्र्या प्रज्ञया (वयम्) (शविष्ठ) अतिशयेन बलयुक्त (वार्य्यम्) वरणीयम् (दिवि) कमनीये राष्ट्रे (श्रवः) श्रवणमन्नं वा (दधीमहि) धरेम (दिवि) प्रशंसनीये राज्ये (स्तोमम्) सकलशास्त्राध्ययनाऽध्यापनम् (मनामहे) विजानीयाम ॥८॥
भावार्थभाषाः - स एव प्रजाप्रियो भवति यो राजा न्यायेन प्रजाः सम्पाल्य विद्यासुशिक्षे प्रजासु प्रवर्त्तयेदिति ॥८॥ अत्रेन्द्रराजप्रजाविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चत्रिंशत्तमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो न्यायाने प्रजेचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून विद्या व उत्तम शिक्षणात प्रजेला प्रवृत्त करतो तोच राजा प्रजेत प्रिय असतो. ॥ ८ ॥